Sunday 23 October 2016

मानव निर्मित सीमाएं

प्राकृतिक रूप से हमारी पृथ्वी पर राष्ट्रों के मध्य कोई सीमा रेखा नहीं है। राष्ट्रों ने प्रशासनिक सुविधा से भाषा एवं सांस्कृतिक विविधता के आधार पर सीमाओं का निर्माण किया। कुछ स्थितियों में सीमाएं औपनिवेशिक विरासत की देन हैं जैसा कि अफ्रीका और एशिया के अधिकांश देशों की सीमाएं।

सीमाओं के निर्माण के साथ ही उनकी सुरक्षा सभी देशों की प्राथमिकता रही है। अधिकाश विकासशील राष्ट्र जिनकी प्राथमिकता आर्थिक विकास और गरीबी उन्मूलन होनी चाहिए, अपनी वार्षिक आय का एक बढ़ा हिस्सा सीमा की सुरक्षा तथा सेना के रखरखाव पर व्यय करने पर विवश हैं। इसके विपरीत यूरोप महाद्वीप के अधिकांश देशों के मध्य कोई सीमा बंदी नहीं है। सीमाएं वहां प्रशासनिक उद्देश्य हेतु  सिर्फ कागजों पर अंकित हैं। ज़ाहिर है कि इनको स्थायी सेना रखने की भी आवकश्यक्ता नहीं है और ये अपने प्राकृतिक एवं मानव संसाधनों।का प्रयोग रचनात्मक कार्यों में कर सकते हैं।

कल्पना करें कि विश्व के सभी राष्ट्र आपसी सहमति से अपने मध्य भौतिक सीमाओं को ख़त्म कर दें तो क्या होगा? रक्षा बजट में भारी कमी होगी और विकास कार्यों का बजट बढ़ेगा। देखा जाए तो यह सभी देशो के लिए लाभदायक स्तिथि होगी। फिर इससे हानि किसको होगी? जी हाँ हानि तो होगी अमेरिका, फ्रांस और शांति का उपदेश देने वाले उन सभी विकसित राष्ट्रों की जिनकी अर्थव्यवस्था भारत, पाकिस्तान और ऐसे सभी तीसरी दुनिया के देशी को अत्याधुनिक रक्षा उपकरणों के निर्यात के सहारे चल रही है।

यह शोध का विषय हो सकता है कि कहीं ये इन्ही विकसित देशो और उनकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियो  के वाणिज्यिक हितों को ध्यान में रख कर ही आज तक कभी विकासशील राष्ट्रों के सीमा विवादों को सुलझाने की गंभीर कोशिश नहीं की गयी। क्योंकि अगर इन्होंने आपसी विवाद सुलझा लिए तो फिर विकसित देशों से मिसाइलें और पनडुब्बियां कौन खरीदेगा। वर्ना क्या कारण है कि जब पूर्व और पश्चिम जर्मनी एक हो गए और भारत पाकिस्तान 70 सालों में भी कश्मीर विवाद नहीं सुलझा पाये। भारत और  पाकिस्तान  के अवसरवादी और भ्रष्ट राजनेताओं से तो कोई उम्मीद करना व्यर्थ ही है पर काश दोनों देशो की जनता यह समझ पाती कि सच्ची देशभक्ति केवल सीमा पर जाकर दुश्मन देश के सैनिको को मारने में नहीं बल्कि देश के संसाधनो का प्रयोग नागरिको का जीवन स्तर उन्नत करने में हैं।

जनसत्ता 20 अक्टूबर 2016 में भी।प्रकाशित

http://www.jansatta.com/chopal/thoughts-on-the-border/167974/