Tuesday 19 May 2015

प्रोटोकॉल के नाम पर



प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के छत्तीसगढ़ दौरे पर बस्तर के कलेक्टर द्वारा धूप का चश्मा लगाये पीएम  की आगवानी करने पर प्रशासन विभाग द्वारा उनको नोटिस देना दुर्भाग्यपूर्ण है। यह बताता है की आज भी किस प्रकार उच्च नौकरशाही और राजनैतिक प्रधानो पर ओपनिवेशिक मानसिकता हावी है। किसी भी अधिकारी का मूल्यांकन उसके कर्त्तव्य पालन तथा सत्यनिष्ठ से होना चाहिए ना कि प्रोटोकॉल के नियमो पर। अखिल भारतीय सेवाओं के पद की गरिमा सम्बन्धी जिन आचरण नियमो का हवाला दिया जा रहा है वे स्वभाव से ही अस्पष्ट है तथा उसमे भी कही चश्मे का कोई ज़िक्र नहीं है।

वास्तव में सारी समस्या की जड़ में ये प्रोटोकॉल ही है जो कार्य निष्पादन के स्थान पर यह देखता है की छोटा अधिकारी बड़े अधिकारी के सामने कैसे आया या बड़ा अधिकारी मंत्री के समक्ष कैसे पेश आया और इन सारी औपचारिकताओं में वास्तविक कार्य पीछे छूट जाते है। सोचने वाली बात है कि यदि कोई कलेक्टर अपने क्षेत्र के दौरे पर है तो स्वाभाविक है की वह उसके अनुकूल पोशाक पहनकर ही घूमेगा। अब यदि ऐसे में कोई ‘माननीय’ उससे मिलने आ जाये तो क्या वह एक जोड़ी कपडे साथ में रखे ताकि प्रोटोकॉल के नियमो का पालन हो सके।

अब समय आ गया है कि हम इन ओपनिवेशिक परम्पराओं तथा प्रतीकात्मक मुद्दों से उपर उठकर अपना समय एवं उर्जा वास्तविक कार्य निष्पादन पर लगाये। वैसे भीं जब नौकरशाह और राजनेता दोनों ही लोक सेवक है तो उनके मध्य कैसा प्रोटोकॉल।

जब हम सुनते है कि प्रधानमन्त्री जी प्रोटोकॉल तोड़कर फलाने राष्ट्र के प्रमुख से मिले या जनता के बींच पहुच गए तब हम उनपर गर्व करते है, इसकी सराहना करते है पर जब कोई अधिकारी प्रोटोकॉल तोड़े तो इतना हंगामा किसलिए भाई? और जहाँ तक आचरण नियमो में उल्लेखित पद की गरिमा का प्रश्न है तो भला धूप का चश्मा लागाने से या किसी किसी खास रंग की शर्ट पहनने से पद की गरिमा कैसे प्रभावित हो सकती है। पद की गरिमा तो उन बेतुके बयानों से प्रभावित होती है हमारे सांसद, मंत्री सस्ती लोकप्रियता बटोरने के लिए यहाँ वहां देते फिरते है।

Also published on editorial page of Hindustan dated 19.05.2015

 http://epaper.livehindustan.com/story.aspx?id=305434&boxid=29167424&ed_date=2015-05-19&ed_code=1&ed_page=10




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Wednesday 13 May 2015

Magic of 1990s काश वो दिन लौट आते

उन सभी के लिए जिन्होंने अपना बचपन 1990-2000 के बींच गुज़ारा है।

कैडबरी  चॉकलेट का एक पुराण विज्ञापन अभी कुछ दिन पहले यूट्यूब पर देखा। उसमे क्रिकेट मैच चल रहा है। लड़का छक्का मारकर शतक पूरा करता है दर्शक दीर्घा में बैठी लड़की जो शायद उसकी गर्लफ्रैंड है, खुशी के मारे कुछ अलग तरह का लेकिन मज़ेदार सा डांस करती हुई स्टेडियम में आती है। बैकग्राउंड में शंकर महादेवन की आवाज है। यह विज्ञापन टीवी पर उन दिनों आता था जब बहुत ज्यादा चैनल नही होते थे और ज्यादातर घरों में तो सिर्फ दूरदर्शन ही चलता था। बचपन मे टीवी पर मैच देखते हुए हर ओवर के बाद जाने कितनी ही बार यह विज्ञापन देखा होगा। तब पता नही था कि जो विज्ञापन मजबूरी में देखने पड़ते हैं कभी इतने सालों बाद फिर यूट्यूब पर देखकर इतना अच्छा लगेगा। अगर आपका बचपन भी 1990-2000 के बीच बीता है तो यकीनन 42 सेकंड का यह विज्ञापन आपको पूरे बचपन की सेर करा देगा।

1990 का दशक। कुछ तो खास बात थी उन दिनों में। आर्थिक मोर्चे पर वैश्वीकरण और निजीकरण की हवा चल रही थी। भारत 1991 के आर्थिक संकट से धीरे धीरे बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था। सामाजिक स्तर पर जहां नए मूल्य स्थापित होने की प्रक्रिया जारी थी तो पुराने मूल्यों को संजोए रखने की कोशिश भी चल रही थी। तथाकथित मध्यम वर्ग अपना दायरा बाद रहा था। स्कूल में पढ़ाया जाता था कि भारत एक विकासशील अर्थव्यवस्था है। अब भी शायद यही पढ़ाते हैं। कुछ चीजें सचमुच वक्त के साथ नही बदलती। खैर हम बच्चों को इन बातों से क्या लेना देना था। हमारा तो अर्थशास्त्र का ज्ञान सिर्फ यहीं तक सीमित था कि स्कूल आने जाने के लिए मिलने वाले बस के भाड़े में से बचत कैसे की जाए।

वो दिन जब टीवी चैनल कम थे और मनोरंजन ज्यादा था। जब मोबाइल और इंटरनेट के बिना भी कम्युनिकेशन होता था। जब गर्मिया बिना एयर कंडीशनर के निकल जाती थी और सर्दिया बिना हीटर के। जब फोटोग्राफ Kodak के कैमरे से लिए जाते थे, एक एक फोटो किफायत से खींचा जाता था और मोबाइल या फेसबुक पर नहीं बल्कि अपने निजी एल्बम में रखे जाते थे। जब घर में कलर टीवी होना तथा टेलीफोन कनेक्शन होना सम्पन्नता का प्रतीक समझा जाता था। टेलीफोन नंबर के साथ PP लगा होना तो बड़ी सामान्य बात थी। जब सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल में लाइन में लग कर टिकट लेकर और पंखे की हवा और मूंगफली खाते हुए फ़िल्म का मज़ा लिया जाता था जहाँ कोई गार्ड आपको घर से लाया हुआ खाने पीने का सामान अंदर ले जाने से रोकता नहीं था और अंदर भी आपको दस गुना कीमत पर सामान बेचकर कोई लूटता नही था। आज पूंजीवाद की देन मल्टीप्लेक्स के सामने हम शायद बेबस हो चुके है। जब पूरा परिवार एक स्कूटर पर समां जाता था और जब केवल किसी खास (बेहद खास) मौके पर ही बाहर रेस्टॉरेंट जाकर खाने का कार्यक्रम बनता था।

यूट्यूब नही था और अपनी पसंद के गाने सुनने और पसंदीदा फिल्मे देखने के लिए वीसीआर और टेप रिकॉर्डर का ही आसरा था तब। वीडियो गेम और कॉमिक्स के दिन। मई की तेज़ धुप में जब घर से बाहर निकलना संभव न हो तब चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी, नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव की कॉमिक्स का ही सहारा होता था। पापा हमको पढ़ने के लिए चम्पक, बालहंस, नंदन आदि पत्रिकाएं तो लेकर देते थे पर पता नही क्यों कॉमिक्स पढ़ना अच्छे बच्चों की आदत नही मानी जाती थी। बड़े बुजुर्ग तो कॉमिक्स को ऐसी हेय दृष्टि से देखते थे मानो कोई अश्लील साहित्य हो। इसलिए हमेशा कॉमिक्स पढ़ते हुए कुछ अपराधबोध सा महसूस होता था। उन सभी किताबों और कॉमिक्स का अच्छा खासा कलेक्शन मेरे पास इकठ्ठा हो गया था जो अभी तक संभाल कर रखा हुआ है। पीले पड़ते हुए कागजों में से अभी भी वो बचपन वाली खुशबू आती है। इधर आजकल के बिचारे अभिभावक चाहते हैं कि बच्चा मोबाइल और कंप्यूटर छोड़ कर कुछ तो पढ़े। कोर्स की किताबें न सही कुछ कहानी कविता या कॉमिक्स ही पढ़े बस पढ़ने की आदत तो डाले।

वीडियो गेम से लेकर कॉमिक्स और यहाँ तक कि साइकिल भी घंटो के हिसाब से किराये पर मिलती थी। मुझे याद है जब हम कभी एक दिन के किराये पर वीडियो गेम लाते थे तो हैम सभी भाई अपना खाने पीने और दैनिक क्रियाकलापो का कार्यक्रम इस प्रकार निर्धारित करते थे कि 24 घंटो में एक एक मिनट का पैसा वसूल सके। वीडियो गेम के साथ मज़ेदार बात ये थी कि जब आप नया नया गेम खेलना सीखते हैं तो रिमोट के साथ खुद भी दाएं बाएं होते रहते हैं। शरीर की इन हलचल से ही पता चल जाता था कि कौन नोसिखिया है और कौन पक्का खिलाड़ी है।

केबल टीवी तो खैर गर्मियों की छुट्टियों में ही नसीब होती थी (ऐसी मान्यता थी की इससे पढाई पर बुरा असर पड़ता है)। बाकी साल तो दूरदर्शन देख कर ही निकलता था। अब समझ आया कि दूरदर्शन का वह समय टीवी सीरियलों की गुणवता की दृष्टि से स्वर्णिम युग था। उस समय प्रसारित होने वाले कार्यक्रम जैसे ब्योमकेश बक्शी, फ्लॉप शो, श्रीमान श्रीमती, मालगुडी डेज, जंगल बुक आदि की अपनी एक क्लास थी। यह वो वक्त था जब साक्षरता अभियान पर केंद्रित तरंग जैसे कार्यक्रम से भी मनोरंजन हो जाता था। आज सिर्फ फिल्मो के ही कम से कम 20 चैनल आते है जिन पर रोज़ाना सैकड़ो फिल्में आती है पर जो इंतज़ार तब दूरदर्शन पर सप्ताह में एक बार आने वाली फ़िल्म के लिए होता था वो आज नदारद है। और फिर ' रूकावट के लिए खेद है' को भला कौन भूल सकता है।

जब बिना इलेक्ट्रॉनिक गेजेट्स के भी ज़िन्दगी बहुत आसान हुआ करती थी। जब किसी भी वस्तु को खरीदने का निर्णय उसकी कीमत और अपनी ज़रूरत के आधार पर लिया जाता था न की उसकी ब्रांड वैल्यू पर। उन दिनों भारत में उपभोक्तावादी संस्कृति पूरी तरह से विकसित नहीं हुई थी। हर पीढ़ी अपने बचपन का समय को सबसे यादगार और विशिष्ट मानती है शायद। 1990 के दशक को खास समझना हमारी पीढ़ी की खुशफहमी ही हो शायद। बस यही सोचता हूँ कि ऐसे कितने लोग होंगे जो आज अपनी सारी दौपत कुर्बान कर अपने बचपन का एक दिन फिर से जीना चाहेंगे बशर्ते ऐसा मुमकिन हो। कुछ तो होंगे ही शायद।

जनसत्ता 14,08,2017 में प्रकाशित

http://www.jansatta.com/duniya-mere-aage/jansatta-article-about-golden-past-time/402099/





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Thursday 7 May 2015

अपराध की उम्र

किशोर न्याय कानून में होने वाले संशोधन के अंतर्गत जघन्य अपराधो के लिए आयु सीमा 18 से घटाकर 16 करने के प्रस्ताव को लेकर बहस जारी है। विभिन्न सामाजिक संगठन बाल अधिकारों तथा उससे सम्बंधित अंतर्राष्ट्रीय संधियों का हवाला दे रहे हैं। पर इन्ही संधियों पर हस्ताक्षर करने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका तथा अनेक यूरोपीय देशो में भी अपराध की बर्बरता और गंभीरता को देखते हुए 18 वर्ष से कम आयु वालो पर भी सामान्य अदालत में मुक़दमा चलने का प्रावधान किया गया है।

यह समझना मुश्किल है कि जो व्यक्ति बलात्कार जैसा अपराध करने की शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वाता रखता है उसे किस आधार पर मासूम किशोर माना जा सकता है। केवल इसलिए कि वह 18 वर्ष की निर्धारित आयु सीमा से कुछ दिन या महीने छोटा है।

बेहतर यह होगा कि एक न्यूनतम आयु सीमे जैसे 10 या 12 वर्ष( जैसा की अमेरिका तथा फ्रांस आदि देशो में हैं) तथा एक ऊपरी सीमा जैसे 18 वर्ष निर्धारित की जाए। अब इस आयु वर्ग में आने वाले अपराधियो पर किये गए अपराध की गंभीरता के आधार पर मुक़दमा चले।

देखा जाए तो किसी भी अपराध की प्रवृति के आधार पर ही यहाँ तय किया जा सकता है कि दोषी पर मुक़दमा सामान्य न्यायलय में चलना चाहिए या किशोर न्यायलय में। अपराधी को दंड देने का एक उद्देश्य संभावित अपराधियों में कानून का भय पैदा करना भी है। वर्ना फिर कोई साढ़े सत्रह साल का 'मासूम' बलात्कार एवं हत्या जैसा जघन्य अपराध करने के बाद भी किशोरे कारावास में अधिकतम 3 साल गुजार कर खुले आम घूमता रहेगा और न्याय व्यवस्था का मजाक उडाता रहेगा।
Also published on editorial.page of Jansatta and Hindustan newspaer of 30.04.2015

http://epaper.jansatta.com/490852/Jansatta.com/Jansatta-Hindi-01052015?show=touch#page/6/2




http://epaper.livehindustan.com/story.aspx?id=266300&boxid=84607796&ed_date=2015-05-01&ed_code=1&ed_page=10




Wednesday 6 May 2015

सब्सिडी किसके लिए

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा समर्थ लोगो से रसोई गैस सब्सिडी छोड़ने की अपील करना ऊपरी तौर पर तो सराहनीय प्रतीत होता है परन्तु उसका व्यापक प्रभाव पड़ने की उम्मीद कम ही है। कारण कि जब जनता सांसदों एवं मंत्रियों को संसद की कैंटीन, आलीशान बंगले , टेलीफोन भत्ता तथा वीआईपी कोटे में रेल यात्रा इत्यादि में बिना हिचक सरकारी धन का इस्तेमाल करते हुए देखती है तो उनसे सब्सिडी छोड़ने की उम्मीद करना व्यर्थ ही है। राजस्व घाटे को कम करने की सोच अच्छी तो है पर एक आम आदमी के नज़रिए से देखा जाए तो उसे सांसदों, विधायको द्वारा अच्छी खासी तनख्वाह होने के बावजूद सरकारी खर्चे पर सुख भोगने के सामने स्वयं ली जाने वाली गैस सब्सिडी नगण्य ही मानी जाएगी.

वैसे भी हमारी जनता प्रत्येक क्षेत्र में 'माननीयो' का अनुसरण करती है तो मुफ्तखोरी में भला कैसे पीछे रह सकती है. हमारे नेतागण जिस प्रकार से अपनी सहूलियत के लिए आयकर दाताओं का पैसा फूकते है, वे जनता को सब्सिडी छोड़ने का आग्रह करने का नैतिक अधिकार खो चुके हैं। 

प्रधानमंत्री जी का जनता को गैस सब्सिडी छोड़ने की नसीहत देना और स्वयं संसद की कैंटीन का शाही खाना खाकर 29 रूपए का बिल भर कर चलते बनना अपने आप में विरोधाभासी है। भ्रष्टाचार के सामान ही उत्तरदायित्व की भावना भी सदैव उच्च स्तर से निम्न स्तर की तरफ प्रवाहित होती है l उच्च संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्ति अपनी कथनी से नहीं बल्कि करनी से ही जन मानस को सब्सिडी छोड़ने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

Also Published on editorial page of Jansatta Newspaper dated 05.05.2014 
http://epaper.jansatta.com/493218/Jansatta.com/Jansatta-Hindi-05052015#page/6/2