Sunday 3 September 2017

सिनेमा हॉल का देश प्रेम

सिनेमा हॉल में फ़िल्म प्रारम्भ होने से पूर्व राष्ट्रगान बजाय जाना किस उद्देश्य की पूर्ति करता है, इस पर विचार होना चाहिए। राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करना हमारे मौलिक कर्तव्यों में शामिल है और इसमें कोई संदेह नही की राष्ट्रगान तथा अन्य राष्ट्रीय प्रतीक  हमेशा ही हमें देशभक्ति की भावना से सराबोर करते हैं। यह और बात है कि यह भावना 52 सेकंड तक ही रहती है। उसके बाद सब कुछ पहले जैसा चलता रहता है। वही निजी स्वार्थ, वही जुगाड़ू प्रवृति और वही दान दक्षिणा और चाय पानी की आड़ में भ्रष्टाचार।

ऐसे ही एक सिनेमा हॉल में फ़िल्म शुरू होने ही वाली थी। लोग अपनी सीट तक पहुचने की जद्दोजगड में थे, बच्चे इधर उधर भाग रहे थे। तभी राष्ट्रगान प्रारम्भ हुआ और सब सावधान की स्थिति में आ गए। बच्चों ने थोड़ी हलचल की तो उनके मां बाप स्वयं को शर्मिंदा महसूस करने लगे। भीड़ ने उन्हें गुस्से में घूरा कि कैसे नालायक, देशद्रोही बच्ची पैदा किये हैं। राष्ट्र गान खत्म हुआ। कुछ अति उत्साही लोगों ने भारत माता की जय के नारे लगाए। पर्दे पर शुरू होने वाली प्रेम कहानी से पहले माहौल देश प्रेम से भर गया।

फ़िल्म शुरू हुई। कुछ देर बाद नायक नायिका के रूमानी दृश्यों को देखकर वीर रस वाले युवा श्रृंगार रस में चले गए और दूसरे दर्जे के दर्शक तीसरे दर्जे वाली भाषा मे टिप्पणियां और कमेंटरी करने लगे। फ़िल्म खत्म होने के बाद वही लोग धक्का मुक्की करते हुए बाहर निकले। फिर सड़क पर जाकर उन्ही लोगो ने ट्रैफिक नियम तोड़े। ये सब करने वाले वही लोग थे जो अंदर राष्ट्रगान पर पूरे सम्मान के साथ सावधान की स्थिति में खड़े थे।

अब इसका दूसरा पहलू देखिए। सिनेमा हॉल में कोई सरकारी कार्यक्रम नही होता है। यहां पर राष्ट्रगान पर खड़े होकर न तो कोई बड़ा देशभक्त बन जायेगा और न ही बैठे रहने से देशभक्ति काम हो जाएगी। ऊपर से हर तरह की मतलब कि घटिया फिल्मो से पहले राष्ट्र गान बजाना तो एक प्रकार से उसका अपमान ही है। राष्ट्र प्रेम की भावना तो भीतर से आनी चाहिए । वह प्रतीकों की मोहताज नही होती। सच्चा देश प्रेम अगार जाग जाए तो भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, साम्प्रदायिकता आदि समस्याएं कब की खत्म हो जाती।  पर उसमे मेहनत लगती है ना, पूर्वाग्रहों से बाहर निकलना और स्वार्थ त्यागना पड़ता है। राष्ट्रगान पर खड़े होना देशभक्त बनने का अपकेक्षकृत आसान तरीका है।

जनसत्ता 06 सितंबर 2017

http://www.jansatta.com/chopal/national-anthem-in-theater-hall-with-which-purpose/423297/


आस्था का मायाजाल

एक बार फिर से त्योहारों का मौसम आ गया है। फिर एक बार गली मोहल्ले के बेरोजगार महीने दो महीने के लिए व्यस्त हो जाएंगे। एक बार फिर से चंदे के नाम पर हफ्ता वसूली शुरू हो जाएगी। फिर एक बार श्रद्धा के नाम पर फिल्मी गानों पर छिछोरी हरकते करने का सुनहरा अवसर मिलेगा। फिर एक बार हर 200 मीटर की दूरी पर पंडाल लगाकर अपनी धार्मिक असुरक्षा की भावना को लाउडस्पीकर के शोर से दबाने का प्रयास किया जाएगा। और एक बार फिर यातायात ठप्प करके यह संदेश दिया जाएगा कि हम अपनी प्राचीन संस्कृति भूले नही हैं और धार्मिक आस्था के सार्वजनिक प्रदर्शन का ठेका किसी एक मजहब ने लेकर नही रखा है।

तिलक जी ने चाहे जिस उद्देश्य से गणेशोत्सव का प्रारंभ किया हो, इतना स्पष्ट है कि बाज़ारवाद के इस दौर में यह धार्मिक आस्था के प्रदर्शन का एक सशक्त माध्यम है। धर्मनिरपेक्षता का नियम कहता है कि अगर एक बार कोई प्रथा धार्मिक आस्था से जुड़ गई तो वो अनंतकाल तक चलेगी। धर्मनिरपेक्षता का दूसरा नियम कहता है कि अगर धर्म 'क' को मानने वाले चार दिन सड़क जाम करते हैं तो "ख' धर्म वालो को भी कम से कम उतने दिन हुल्लड़ मचाने  का मौलिक अधिकार है। ऐसे में कुछ सोचने समझने और समझाने के लिए न ही कोई गुंजाइश बकरी है और न ही वक्त।


Thursday 3 August 2017

राष्ट्रीय चरित्र

राजस्थान के भरतपुर में एक्सिस बैंक के एक एटीएम में 100 रुपये के शेल्फ में गलती से 500 रुपये के नोट रख दिये गए। मिनटों में ही यह बात पूरे इलाके में फैल गयी और रहवासियों ने अपनी जबरदस्त प्रतिभा का परिचय देते हुए एक घंटे के अंदर ही एटीएम खाली कर दिया। इस पूरी प्रक्रिया में जनता ने अनुशासन बनाये रखा और सबने लाइन में लग कर एक एक करके मुफ्त का माल बटोर। चंद रुपयों के लिए किसी प्रकार की भगदड़ नही मचाई गयी। इस मामूली सी दिखने वाली घटना के बड़े गहरे मायने हैं।

ऐसी घटना से चाहे अनचाहे हमारे जगतगुरु कहलाने वाले राष्ट्र का चरित्र उजागर हो जाता है। यह सच है कि एक छोटे से कस्बे की घटना से हम पूरे राष्ट्र का आंकलन नही कर सकते परंतु एक घंटे में 250 लोगो का यह सैंपल इतना छोटा भी नही है कि इसे अनदेखा किया जा सके।

उस दिन लाइन में लगे हुए लोगो मे दफ्तर जाने वाले लोग भी होंगे और दुकान धंधा चलाने वाले लोग भी। वही चेहरे होंगे जिन्हें ईमानदारी का चोगा पहने हुए आप अपने आस पास देख सकते हैं। लाइन में लगी हुई वह भीड़ सही मायने में भारतीय आम आदमी का प्रतिनिधित्व करती हुई मालूम पड़ती है। तो क्या यह मान लिया जाये कि बहुत सारे लोग सिर्फ इसलिए ईमानदार बने हुए हैं या ईमानदार प्रतीत होते हैं कि उनको आज तक बेईमानी करने का मौका ही नही मिला।

जनसत्ता 02अगस्त 2017 में भी प्रकाशित




Friday 30 June 2017

आधुनिक सामंतवाद

पिछले दिनों हमारी वीआईपी संस्कृति पर दो परस्पर विरोधाभासी खबरे पढ़ने को मिली। गुजरात विधानसभा अध्यक्ष गांधीनगर के सिविल अस्पताल में आंखें चेक करवाने गए और गाड़ी गलत पार्किंग में लगा दी।  अब वहां मौजूद बेचारा गार्ड अपनी ड्यूटी से मजबूर था और अध्यक्ष महोदय को पहचानता भी नही था सो उसने उनको वहां से गाड़ी हटाने को कहा। सुबह शाम जी हुज़ूर सुनने वाले नेताजी भला यह गुस्ताखी कैसे बर्दाश्त करते। पहले तो उन्होंने अपने तरीके से उसको झड़प लगाई और फिर बाद में गार्ड को अपनी नॉकरी से भी हाथ धोना पड़ा। बात यही तक खत्म नही हुई। अस्पताल ने उस सुरक्षा एजेंसी का कॉन्ट्रैक्ट ही रद्द कर दिया। अब हॉस्पिटल वाले चाहे लाख सफाई दे कि इसका अध्यक्ष महोदय से कोई संबंध नही है पर कोई बच्चा भी यह सब समझ सकता है की यह सब किसके इशारों पर हुआ है। यह शायद हमारे महान लोकतंत्र के सामंतवाद का नया संस्करण है।

दूसरी खबर बंगलोर से आयी जहां एक ट्रैफिक इंस्पेक्टर ने माननीय राष्ट्रपति के काफिले के बीच एक एम्बुलेंस को निकलने का रास्ता दिया। इंस्पेक्टर के इस कदम की आम जनता से लेकर उच्च अधिकारियों सभी ने जम कर प्रशंसा की। एक तरफ बंगलोर वाली खबर जहां नई उम्मीद जगती है वही गांधीनगर की घटना डराती है।

असल मे इतने सालों की गुलामी हमारे अवचेतन मन पर ऐसी छाई है कि हम आज़ादी के 70 साल बाद भी इस प्रकार की घटनाओं को गंभीरता से नही लेते। आये दिन आम बातचीत में हम यह सुनते रहते है कि वो तो फलाने मंत्री या नेता का खास आदमी है और कोई भी काम चुटकियों में करा सकता है या फलाना आदमी बहुत जुगाड़ू है। दरअसल यह जुगाड़ू प्रवृति और जी हजूरी वाली संस्कृति  ही इस आधुनिक सामंतवाद की जड़ है। अपना उल्लू सीधा करने के लिए हम जान प्रतिनिधियों को इतना ऊपर चढ़ा देते हैं कि वो स्वयं के लिए विशिष्टता के स्थायी मापदंड गढ़ लेते हैं। इस मानसिक गुलामी से मुक्त होना ओपनिवेशिक गुलामी से आज़ाद होने से कही अधिक चुनोतीपूर्ण है।

जनसत्ता 30/06/2017 में प्रकाशित

http://www.jansatta.com/chopal/chaupal-modern-feudalism/361955/




Sunday 19 March 2017

कौन खोलेगा पोल

अभी कुछ समय पूर्व सीमा सुरक्षा बल के कांस्टेबल श्री तेज बहादुर यादव ने सोशल मीडिया पर विडियो के माध्यम से सैनिको के दिए जा रहे घटिया खाने की पोल खोली  थी। विडियो जितनी तेजी से वायरल हुआ, सीमा सुरक्षा बल और रक्षा मंत्रालय में उतनी तेजी से सनसनी फैल गयी। भ्रष्टाचार का पर्दाफार करने वाले को सम्मान और सुरक्षा देने के बजाय उल्टा उस पर ही अनुशासनहीनता के आरोप लगाए गए। खाने की गुडवत्ता की दिखावटी जांच के साथ सैनिक के पुराने रिकॉर्ड निकालकर किसी भी प्रकार से उसे गैरज़िम्मेदार साबित करने की पुरजोर  कोशिश शुरू हो गई।

बी एस ऍफ़ के आला अधिकारियों ने नसीहत या यूँ कहे कि धमकी दी कि किसी भी प्रकार की समस्या अपने उच्च अधिकारी को बताई जाए। यह तो वैसी ही बात हो गयी जैसे कि चोर से ही जाकर चोरी की शिकायत करना। अब भला कोई  स्वयं के खिलाफ आरोप क्यों सुनेगा। एक  तरफ सरकार 24 घंटे सोशल मीडिया पर कपनी उपलब्धियां गिनाने से नहीं थकती, बार बार जनता से प्रतिक्रिया देने को कहा जाता है वही दूसरी और रक्षा मंत्री जी कहते हैं कि सैनिक अपनी शिकायते सोशल मीडिया पर न डाले क्योंकि विभागीय शिकायतों को तो दबाया जा सकता है पर सोशल मीडिया पर तो सारी जनता को पता चल जायेगा की सरकार  भ्रष्टाचार को लेकर कितनी गंभीर है।

खेद का विषय है कि जिन सैनिको की दुहाई देकर सरकार आम जनता को नोटेबन्दी से होने वाली सभी समस्याओं को झेलने की नसीहत देती है उन्ही सैनिको के राशन में होने वाले घपलों को हलके में लिया जा रहा है। यदि भ्रष्टाचार की पोल खोलने वालों को हतोत्साहित और प्रताड़ित करने का सरकार का यही रवैया रहा तो कोई भी व्यक्ति अपनी जान खतरे में डाल कर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाएगा। इस प्रकार तेज बहादुर जैसे देशभक्तो ने जो आशा की एक छोटी सी लौ जलायी है वह भी बुझा दी जायेगी और हमारे बाबुओं और माननीयों को लूट की झूली छूट मिल जायेगी।

जनसत्ता 08 मार्च 2017

http://www.jansatta.com/chopal/chaupal-will-open-poll-health-question/270468/


Friday 23 December 2016

नोट बंदी एक आर्थिक त्रासदी

एक विकासशील अर्थव्यवस्था में 86% मूल्य के नोट रातोंरात बाजार से बाहर कर देना, जहा 90% लेन देन कॅश में होता है और लगभग 40% आबादी का किसी बैंक में कोई खाता नहीं है और यह सारी मशक्कत उस 2% काले धन को ख़त्म करने के लिए जो बड़े नोटों में दबा है।  किसी को भी यह समझने के लिए अर्थशास्त्र के  विशेष ज्ञान की ज़रूरत नहीं है कि यह फैसला ग्रामीण अर्थव्यवस्था और लघु उद्योगों के लिए किसी आपदा से कम नहीं है।

आज हम माध्यम वर्गीय लोग भी बहार खाना खाने के लिए ठेले वाले को नही बड़े रेस्टॉरेंट ढूंढते हैं जहाँ कॅश से पेमेंट का झंझट न हो। राशन के सामन से लेकर  ज़रूरत की हर वस्तु खरीदने के लिए छोटे दुकानदारों को नहीं बल्कि बड़े शॉपिंग मॉल जाने को  मजबूर है भले ही वह पैसे ज्यादा देने पड़े। समझ जा सकता है।कि इस फैसले से किसका फायदा हो रहा है और किसका नुक्सान। ग्राहक के व्यवहार में यह परिवर्तन अन्य विकल्पों को ख़त्म करके जबर्दस्ती थोपा जा रहा है।।

आम आदमी घंटो बैंक की लाइन में लगने को मजबूर है। बैंक में बचत खाते का मतलब ही यह होता है कि मांगे जाने पर ग्राहक को भुगतान किया जाएगा। फिर बचत खाते से आहरण की सीमा निर्धारित करना क्या ग्राहक  और  बैंक के मध्य करार का उल्लंघन नहीं है। इस आधार पर बैंको की तरफ से सरकार को सभी जमाधारको को हर्जाना भरना चाहिए ठीक उसी रकार जैसे बैंक आपके खाते में न्यूनतम राशि न होने पर शुल्क वसूलते हैं।

कभी कुछ  दिन पहले ही लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति पर ढीले रवैये को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को लताड़ लगाते हुए भ्रष्टाचार के  खिलाफ साकार की मंशा पर सवाल उठाये थे। वैसे भभ्रष्टाचार को लेकर सरकार की गंभीरता पर जो थोड़ा बहुत संदेह था वह तब दूर हो गया जब सभी राजनीतिक दलों के खातों में बिना किसी जांच के पुराने नोट जमा करने की छूट दे दी गयी। जाहिर है हम्माम में सब नंगे हैं और आरोप प्रत्यारोप का यह ढोंग सिर्फ जनता को मूर्ख बनाने के लिए है।

बेहतर होता की सरकार उस 98% काले धन पर हमला करती ओ गोल्ड, रियल एस्टेट और विदेशी बैंको में जमा है। पर शायद उससे उन बड़ी मछलियों को समस्या होती जो या तो सरकार चला रहे हैं या सरकार चलने वालों को। वैसे भी नोटबंदी सिर्फ काले धन के भण्डार पर हमला करता है उसके प्रवाह पर नहीं यानि इससे भविष्य में होने वाले भ्रष्टाचार पर कोई कमी नहीं आएगी। असल में समस्या बड़े नोटों की नहीं चरित्र और नैतिक मूल्यों की है जिनका हमारे देश में नितान्त अभाव है।

जनसत्ता 22 दिसम्बर 2018 में प्रकाशित

http://epaper.jansatta.com/m/1044938/Jansatta.com/22-December-2016#issue/6/1


Sunday 4 December 2016

दिल्ली, आम आदमी और अवसाद

बात सन् 2012 की है। मैंने भारतीय स्टेट बैंक की नोकरी छोड़ कर विदेश मंत्रालय ज्वाइन करने का फैसला किया। वैसे तो पहले भी मैं एक पर्यटक की हैसियत से दिल्ली घूम चुका था पर देश की राजधानी में रहकर नोकरी करने का यह मेरा पहला अनुभव था। एक 80% visually impaired व्यक्ति के लिए अकेले आकर दिल्ली में नोकरी करना एक बड़ी चुनोती थी और यह मैंने अगले दो वर्षों में काफी अच्छे से महसूस किया।

बाहर से आने वालो के लिए दिल्ली आगे बढ़ने के असंख्य अवसर प्रदान करता है। छोटे शहरों में रहने वालो के लिए दिल्ली कई मामलो में एक नया अनुभव देता है जैसे की दिल्ली मेट्रो या flyovers. यहाँ पर सस्ते से सस्ती और महँगी से महँगी वस्तुएं मिल सकती है बशर्ते आपको पता होना चाहिए की कहाँ क्या मिलेगा।

भारत सरकार के सभी मंत्रालय और मुख्यालय होने के कारण यह स्वभाविक है कि दिल्ली में सरकारी बाबुओं की कोई कमी नहीं है। सरकारी नोकरी को जो रुतवा अपने खयालो के लिए जब छोटे शहरो से युवा आकर यहाँ मंत्रालयों में आकर ज्वाइन करते हैं तो उनका सामना वास्तविकता से होता है। SSC की एक कठिन परीक्षा पास करने के बाद जब ऑफिस में आकर क्लर्क वाला काम और UPSC द्वारा चयनित अधिकारीयों की जी हुज़ूरी करनी पड़ती है तो आपकी रचनात्मकता और आत्म सम्मान को थोड़ी ठेस तो पहुचती है। खैर छोटे स्तर के कर्मचारी यह सोच कर बड़े अधिकारियो की  डांट खा लेते हैं कि बेचारे अधिकारीयों को भी अनपढ़ मंत्रियों की लताड़ खाने को मिलती है। कुल मिला कर भारत के इस सरकारी तंत्र में हर ऊपर वाला अपने से नीचे वालो को अपना गुलाम समझता है।

जहाँ तक दिल्ली की आम जनता की बात करें तो यह तो मानना पड़ेगा कि किसी भी दूसरे शहर की तुलना में दिल्ली की जनता सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक मुद्दों पर अधिक सजग है। फिर चाहे वो अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के खिलाफ जान आंदोलन हो या दामिनी बलात्कार के खिलाफ जन आक्रोश, दिल्ली की जनता जिस  प्रकार से सड़को पर आकर न्याय के लिए सक्रियता दिखाती हैं, अपना दैनिक कार्य छोड़कर पुलिस की लाठियां खाती है, वैसा कहीं और देखने को नहीं मिलता।  बेशक इस जन भागीदारी से रास्ते बंद हो जाते हैं, यातायात ठहर जाता है पर किसी के चेहरे पर शिकन नहीं आती। दिसम्बर 2012 में मैं दिल्ली में ही था और अपने व्यक्तिगत अनुभव से मैं यह कह सकता हूँ कि यही जनभागीदारी भारत की राजधानी की कुछ सकारात्मक बातों में से एक है।

वैसे इन नेक इरादों के अलावा भी कई कारणों से दिल्ली के रास्ते बंद होते थे, मेट्रो स्टेशन बंद होते थे और बसों के रूट बदले जाते थे जो कि टाले जा सकते थे। उदहारण के लिए किसी भी VIP या किसी विदेशी राष्ट्रपति/प्रधानमंत्री के लिए आये दिन रास्ते बंद कर देना, जब ऑफिस से घर आने का कोई साधन नहीं मिलता था और मैं सोचता था की यदि हम जैसो को जो जैसे तैसे टैक्सी ऑटो करके घर पहुच सकते हैं, को इतनी समस्या हो रही है तो उन लोगो का क्या होता होगा जो सिर्फ सार्वजनिक परिवहन का खर्च उठा सकते हैं। ऐसे ही नज़ारे एक लोकतांत्रिक देश में मुझे सामंतवाद का आभास कराते थे। भ्रष्टाचार पर आक्रोशित लोग पता नहीं कब इस VIP culture के खिलाफ एकजुटता दिखाएंगे।

देश के किसी भी महानगर की तरह दिल्ली में भी दिल्ली में दो भारत बसते हैं बस फर्क सिर्फ इतना है कि एक माध्यम वर्गीय सरकारी कर्मचारी को भी दिल्ली के जीवन स्तर के हिसाब से आप वंचित वर्ग में रख सकते हैं। हमारे ही विदेश मंत्रालय में IFS Officers को ऑफिस से 2 किमी दूर चाणक्यपुरी में मकान आबंटित किये गए थे और हम SSC पास किये हुओं को 20 किमी दूर द्वारका में। पानी की बोतल, चाय की गुणवत्ता और कुर्सी के आकार हर तरीके से छोटे लोगो को यह बताया जाता था कि वो कितने छोटे हैं। एक तरफ ठसाठस भरी हुई DTC की बसे और दिल्ली मेट्रो होती थी जहाँ पर खड़े होने के लिए भी लोगो को संघर्ष करना पड़ता था वहीँ दूसरी और कारें दौड़ती थी जिसमे अधिकाश में एक ही व्यक्ति बैठा होता था। जी हाँ शायद कार पूलिंग करना दिल्ली वालों की शान के खिलाफ था। यही हाल शौपिंग मॉल और मल्टीप्लेक्सेज का था जहाँ विदेशी ब्रांड्स और 250 रूपए के पॉपकॉर्न हमे मुह चिढ़ाते थे।

एक बात जिसने मुझे सबसे ज्यादा निराश किया वह था दिल्ली के लोगो का हर बात गालियों से शुरू करके गालियों पर खत्म होना और महिलाओं/लड़कियों के प्रति दृष्टिकोण। मैं यहाँ generalise नहीं कर रहा पर यह मेरा अनुभव है। भोपाल से आने के कारण आम बोलचाल में गालियों का प्रयोग करते लोगो को देखना मेरे लिए नयी बात नहीं थी पर दिल्लीवाले इस मामले में भोपाल से भी दो कदम आगे निकले। उनको पता ही नहीं चलता की किस बात के साथ वो कोनसी माँ बहन की गाली दे रहे हैं। व्यक्तिगत रूप से मैं किसी भी स्थिति में गालियां देने को गलत मानता हूँ। आखिर आपसी बातो में माँ बहन की बेइज़्ज़ती क्यों करना।

दूसरा मुद्दा यानि कि महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण का मुद्दा अधिक गंभीर है। देश की राजधानी होने के बाद भी मानसिक रूप से लोग यह मानने को तैयार नहीं हैं की लड़का और लड़की एक समान है। कुछ हद तक दिल्ली में लड़कियों के खिलाफ बढ़ते हुए अपराधों विशेषकर बलात्कार के पीछे अवचेतन मन में स्थापित यही पिछड़ी मानसिकता जिम्मेदार है।

कुल मिला कर दिल्ली में सभी अच्छी बुरी बातो के बावजूद मुझे यह मानना पड़ेगा कि मैंने दिल्ली आकर कुछ बहुत अच्छे दोस्त बनाये हैं और बहुत कुछ नया सीखा है।  2012 में जब दिल्ली आया था और 2015 में जब यहाँ से गया, इन तीन सालो में मैं पहले से अधिक परिपक्व, आत्मविश्वासी और मजबूत इंसान बना।जब पहली बार इतने लंबे समय के लिए घर से बाहर आया था तो शुरुआत में ज़रूर कुछ समस्याएं आई पर बाद में धीरे धीरे सब मैनेज करना सीख गया और अपने जैसे बाहर से आये और लोगो से भी मिला, सीखा और समझा की कैसे दिल्ली में गुज़ारा किया जाए। मैं खुशकिस्मत था कि ऑफिस और ऑफिस के बहार मुझे अधिकांश सच्चे, सहयोगी और मिलनसार लोग मिले और उनमे से अनेक आज मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं।

जनसत्ता दुनिया मेरे आगे 12 जानवरी 2017 में प्रकाशित


http://www.jansatta.com/duniya-mere-aage/duniya-mere-aage-about-culture/227508/