Sunday 3 September 2017

सिनेमा हॉल का देश प्रेम

सिनेमा हॉल में फ़िल्म प्रारम्भ होने से पूर्व राष्ट्रगान बजाय जाना किस उद्देश्य की पूर्ति करता है, इस पर विचार होना चाहिए। राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करना हमारे मौलिक कर्तव्यों में शामिल है और इसमें कोई संदेह नही की राष्ट्रगान तथा अन्य राष्ट्रीय प्रतीक  हमेशा ही हमें देशभक्ति की भावना से सराबोर करते हैं। यह और बात है कि यह भावना 52 सेकंड तक ही रहती है। उसके बाद सब कुछ पहले जैसा चलता रहता है। वही निजी स्वार्थ, वही जुगाड़ू प्रवृति और वही दान दक्षिणा और चाय पानी की आड़ में भ्रष्टाचार।

ऐसे ही एक सिनेमा हॉल में फ़िल्म शुरू होने ही वाली थी। लोग अपनी सीट तक पहुचने की जद्दोजगड में थे, बच्चे इधर उधर भाग रहे थे। तभी राष्ट्रगान प्रारम्भ हुआ और सब सावधान की स्थिति में आ गए। बच्चों ने थोड़ी हलचल की तो उनके मां बाप स्वयं को शर्मिंदा महसूस करने लगे। भीड़ ने उन्हें गुस्से में घूरा कि कैसे नालायक, देशद्रोही बच्ची पैदा किये हैं। राष्ट्र गान खत्म हुआ। कुछ अति उत्साही लोगों ने भारत माता की जय के नारे लगाए। पर्दे पर शुरू होने वाली प्रेम कहानी से पहले माहौल देश प्रेम से भर गया।

फ़िल्म शुरू हुई। कुछ देर बाद नायक नायिका के रूमानी दृश्यों को देखकर वीर रस वाले युवा श्रृंगार रस में चले गए और दूसरे दर्जे के दर्शक तीसरे दर्जे वाली भाषा मे टिप्पणियां और कमेंटरी करने लगे। फ़िल्म खत्म होने के बाद वही लोग धक्का मुक्की करते हुए बाहर निकले। फिर सड़क पर जाकर उन्ही लोगो ने ट्रैफिक नियम तोड़े। ये सब करने वाले वही लोग थे जो अंदर राष्ट्रगान पर पूरे सम्मान के साथ सावधान की स्थिति में खड़े थे।

अब इसका दूसरा पहलू देखिए। सिनेमा हॉल में कोई सरकारी कार्यक्रम नही होता है। यहां पर राष्ट्रगान पर खड़े होकर न तो कोई बड़ा देशभक्त बन जायेगा और न ही बैठे रहने से देशभक्ति काम हो जाएगी। ऊपर से हर तरह की मतलब कि घटिया फिल्मो से पहले राष्ट्र गान बजाना तो एक प्रकार से उसका अपमान ही है। राष्ट्र प्रेम की भावना तो भीतर से आनी चाहिए । वह प्रतीकों की मोहताज नही होती। सच्चा देश प्रेम अगार जाग जाए तो भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, साम्प्रदायिकता आदि समस्याएं कब की खत्म हो जाती।  पर उसमे मेहनत लगती है ना, पूर्वाग्रहों से बाहर निकलना और स्वार्थ त्यागना पड़ता है। राष्ट्रगान पर खड़े होना देशभक्त बनने का अपकेक्षकृत आसान तरीका है।

जनसत्ता 06 सितंबर 2017

http://www.jansatta.com/chopal/national-anthem-in-theater-hall-with-which-purpose/423297/


आस्था का मायाजाल

एक बार फिर से त्योहारों का मौसम आ गया है। फिर एक बार गली मोहल्ले के बेरोजगार महीने दो महीने के लिए व्यस्त हो जाएंगे। एक बार फिर से चंदे के नाम पर हफ्ता वसूली शुरू हो जाएगी। फिर एक बार श्रद्धा के नाम पर फिल्मी गानों पर छिछोरी हरकते करने का सुनहरा अवसर मिलेगा। फिर एक बार हर 200 मीटर की दूरी पर पंडाल लगाकर अपनी धार्मिक असुरक्षा की भावना को लाउडस्पीकर के शोर से दबाने का प्रयास किया जाएगा। और एक बार फिर यातायात ठप्प करके यह संदेश दिया जाएगा कि हम अपनी प्राचीन संस्कृति भूले नही हैं और धार्मिक आस्था के सार्वजनिक प्रदर्शन का ठेका किसी एक मजहब ने लेकर नही रखा है।

तिलक जी ने चाहे जिस उद्देश्य से गणेशोत्सव का प्रारंभ किया हो, इतना स्पष्ट है कि बाज़ारवाद के इस दौर में यह धार्मिक आस्था के प्रदर्शन का एक सशक्त माध्यम है। धर्मनिरपेक्षता का नियम कहता है कि अगर एक बार कोई प्रथा धार्मिक आस्था से जुड़ गई तो वो अनंतकाल तक चलेगी। धर्मनिरपेक्षता का दूसरा नियम कहता है कि अगर धर्म 'क' को मानने वाले चार दिन सड़क जाम करते हैं तो "ख' धर्म वालो को भी कम से कम उतने दिन हुल्लड़ मचाने  का मौलिक अधिकार है। ऐसे में कुछ सोचने समझने और समझाने के लिए न ही कोई गुंजाइश बकरी है और न ही वक्त।