उन सभी के लिए जिन्होंने अपना बचपन 1990-2000 के बींच गुज़ारा है।
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कैडबरी चॉकलेट का एक पुराण विज्ञापन अभी कुछ दिन पहले यूट्यूब पर देखा। उसमे क्रिकेट मैच चल रहा है। लड़का छक्का मारकर शतक पूरा करता है दर्शक दीर्घा में बैठी लड़की जो शायद उसकी गर्लफ्रैंड है, खुशी के मारे कुछ अलग तरह का लेकिन मज़ेदार सा डांस करती हुई स्टेडियम में आती है। बैकग्राउंड में शंकर महादेवन की आवाज है। यह विज्ञापन टीवी पर उन दिनों आता था जब बहुत ज्यादा चैनल नही होते थे और ज्यादातर घरों में तो सिर्फ दूरदर्शन ही चलता था। बचपन मे टीवी पर मैच देखते हुए हर ओवर के बाद जाने कितनी ही बार यह विज्ञापन देखा होगा। तब पता नही था कि जो विज्ञापन मजबूरी में देखने पड़ते हैं कभी इतने सालों बाद फिर यूट्यूब पर देखकर इतना अच्छा लगेगा। अगर आपका बचपन भी 1990-2000 के बीच बीता है तो यकीनन 42 सेकंड का यह विज्ञापन आपको पूरे बचपन की सेर करा देगा।
1990 का दशक। कुछ तो खास बात थी उन दिनों में। आर्थिक मोर्चे पर वैश्वीकरण और निजीकरण की हवा चल रही थी। भारत 1991 के आर्थिक संकट से धीरे धीरे बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था। सामाजिक स्तर पर जहां नए मूल्य स्थापित होने की प्रक्रिया जारी थी तो पुराने मूल्यों को संजोए रखने की कोशिश भी चल रही थी। तथाकथित मध्यम वर्ग अपना दायरा बाद रहा था। स्कूल में पढ़ाया जाता था कि भारत एक विकासशील अर्थव्यवस्था है। अब भी शायद यही पढ़ाते हैं। कुछ चीजें सचमुच वक्त के साथ नही बदलती। खैर हम बच्चों को इन बातों से क्या लेना देना था। हमारा तो अर्थशास्त्र का ज्ञान सिर्फ यहीं तक सीमित था कि स्कूल आने जाने के लिए मिलने वाले बस के भाड़े में से बचत कैसे की जाए।
वो दिन जब टीवी चैनल कम थे और मनोरंजन ज्यादा था। जब मोबाइल और इंटरनेट के बिना भी कम्युनिकेशन होता था। जब गर्मिया बिना एयर कंडीशनर के निकल जाती थी और सर्दिया बिना हीटर के। जब फोटोग्राफ Kodak के कैमरे से लिए जाते थे, एक एक फोटो किफायत से खींचा जाता था और मोबाइल या फेसबुक पर नहीं बल्कि अपने निजी एल्बम में रखे जाते थे। जब घर में कलर टीवी होना तथा टेलीफोन कनेक्शन होना सम्पन्नता का प्रतीक समझा जाता था। टेलीफोन नंबर के साथ PP लगा होना तो बड़ी सामान्य बात थी। जब सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल में लाइन में लग कर टिकट लेकर और पंखे की हवा और मूंगफली खाते हुए फ़िल्म का मज़ा लिया जाता था जहाँ कोई गार्ड आपको घर से लाया हुआ खाने पीने का सामान अंदर ले जाने से रोकता नहीं था और अंदर भी आपको दस गुना कीमत पर सामान बेचकर कोई लूटता नही था। आज पूंजीवाद की देन मल्टीप्लेक्स के सामने हम शायद बेबस हो चुके है। जब पूरा परिवार एक स्कूटर पर समां जाता था और जब केवल किसी खास (बेहद खास) मौके पर ही बाहर रेस्टॉरेंट जाकर खाने का कार्यक्रम बनता था।
यूट्यूब नही था और अपनी पसंद के गाने सुनने और पसंदीदा फिल्मे देखने के लिए वीसीआर और टेप रिकॉर्डर का ही आसरा था तब। वीडियो गेम और कॉमिक्स के दिन। मई की तेज़ धुप में जब घर से बाहर निकलना संभव न हो तब चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी, नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव की कॉमिक्स का ही सहारा होता था। पापा हमको पढ़ने के लिए चम्पक, बालहंस, नंदन आदि पत्रिकाएं तो लेकर देते थे पर पता नही क्यों कॉमिक्स पढ़ना अच्छे बच्चों की आदत नही मानी जाती थी। बड़े बुजुर्ग तो कॉमिक्स को ऐसी हेय दृष्टि से देखते थे मानो कोई अश्लील साहित्य हो। इसलिए हमेशा कॉमिक्स पढ़ते हुए कुछ अपराधबोध सा महसूस होता था। उन सभी किताबों और कॉमिक्स का अच्छा खासा कलेक्शन मेरे पास इकठ्ठा हो गया था जो अभी तक संभाल कर रखा हुआ है। पीले पड़ते हुए कागजों में से अभी भी वो बचपन वाली खुशबू आती है। इधर आजकल के बिचारे अभिभावक चाहते हैं कि बच्चा मोबाइल और कंप्यूटर छोड़ कर कुछ तो पढ़े। कोर्स की किताबें न सही कुछ कहानी कविता या कॉमिक्स ही पढ़े बस पढ़ने की आदत तो डाले।
वीडियो गेम से लेकर कॉमिक्स और यहाँ तक कि साइकिल भी घंटो के हिसाब से किराये पर मिलती थी। मुझे याद है जब हम कभी एक दिन के किराये पर वीडियो गेम लाते थे तो हैम सभी भाई अपना खाने पीने और दैनिक क्रियाकलापो का कार्यक्रम इस प्रकार निर्धारित करते थे कि 24 घंटो में एक एक मिनट का पैसा वसूल सके। वीडियो गेम के साथ मज़ेदार बात ये थी कि जब आप नया नया गेम खेलना सीखते हैं तो रिमोट के साथ खुद भी दाएं बाएं होते रहते हैं। शरीर की इन हलचल से ही पता चल जाता था कि कौन नोसिखिया है और कौन पक्का खिलाड़ी है।
केबल टीवी तो खैर गर्मियों की छुट्टियों में ही नसीब होती थी (ऐसी मान्यता थी की इससे पढाई पर बुरा असर पड़ता है)। बाकी साल तो दूरदर्शन देख कर ही निकलता था। अब समझ आया कि दूरदर्शन का वह समय टीवी सीरियलों की गुणवता की दृष्टि से स्वर्णिम युग था। उस समय प्रसारित होने वाले कार्यक्रम जैसे ब्योमकेश बक्शी, फ्लॉप शो, श्रीमान श्रीमती, मालगुडी डेज, जंगल बुक आदि की अपनी एक क्लास थी। यह वो वक्त था जब साक्षरता अभियान पर केंद्रित तरंग जैसे कार्यक्रम से भी मनोरंजन हो जाता था। आज सिर्फ फिल्मो के ही कम से कम 20 चैनल आते है जिन पर रोज़ाना सैकड़ो फिल्में आती है पर जो इंतज़ार तब दूरदर्शन पर सप्ताह में एक बार आने वाली फ़िल्म के लिए होता था वो आज नदारद है। और फिर ' रूकावट के लिए खेद है' को भला कौन भूल सकता है।
जब बिना इलेक्ट्रॉनिक गेजेट्स के भी ज़िन्दगी बहुत आसान हुआ करती थी। जब किसी भी वस्तु को खरीदने का निर्णय उसकी कीमत और अपनी ज़रूरत के आधार पर लिया जाता था न की उसकी ब्रांड वैल्यू पर। उन दिनों भारत में उपभोक्तावादी संस्कृति पूरी तरह से विकसित नहीं हुई थी। हर पीढ़ी अपने बचपन का समय को सबसे यादगार और विशिष्ट मानती है शायद। 1990 के दशक को खास समझना हमारी पीढ़ी की खुशफहमी ही हो शायद। बस यही सोचता हूँ कि ऐसे कितने लोग होंगे जो आज अपनी सारी दौपत कुर्बान कर अपने बचपन का एक दिन फिर से जीना चाहेंगे बशर्ते ऐसा मुमकिन हो। कुछ तो होंगे ही शायद।
जनसत्ता 14,08,2017 में प्रकाशित
http://www.jansatta.com/duniya-mere-aage/jansatta-article-about-golden-past-time/402099/
1990 का दशक। कुछ तो खास बात थी उन दिनों में। आर्थिक मोर्चे पर वैश्वीकरण और निजीकरण की हवा चल रही थी। भारत 1991 के आर्थिक संकट से धीरे धीरे बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था। सामाजिक स्तर पर जहां नए मूल्य स्थापित होने की प्रक्रिया जारी थी तो पुराने मूल्यों को संजोए रखने की कोशिश भी चल रही थी। तथाकथित मध्यम वर्ग अपना दायरा बाद रहा था। स्कूल में पढ़ाया जाता था कि भारत एक विकासशील अर्थव्यवस्था है। अब भी शायद यही पढ़ाते हैं। कुछ चीजें सचमुच वक्त के साथ नही बदलती। खैर हम बच्चों को इन बातों से क्या लेना देना था। हमारा तो अर्थशास्त्र का ज्ञान सिर्फ यहीं तक सीमित था कि स्कूल आने जाने के लिए मिलने वाले बस के भाड़े में से बचत कैसे की जाए।
वो दिन जब टीवी चैनल कम थे और मनोरंजन ज्यादा था। जब मोबाइल और इंटरनेट के बिना भी कम्युनिकेशन होता था। जब गर्मिया बिना एयर कंडीशनर के निकल जाती थी और सर्दिया बिना हीटर के। जब फोटोग्राफ Kodak के कैमरे से लिए जाते थे, एक एक फोटो किफायत से खींचा जाता था और मोबाइल या फेसबुक पर नहीं बल्कि अपने निजी एल्बम में रखे जाते थे। जब घर में कलर टीवी होना तथा टेलीफोन कनेक्शन होना सम्पन्नता का प्रतीक समझा जाता था। टेलीफोन नंबर के साथ PP लगा होना तो बड़ी सामान्य बात थी। जब सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल में लाइन में लग कर टिकट लेकर और पंखे की हवा और मूंगफली खाते हुए फ़िल्म का मज़ा लिया जाता था जहाँ कोई गार्ड आपको घर से लाया हुआ खाने पीने का सामान अंदर ले जाने से रोकता नहीं था और अंदर भी आपको दस गुना कीमत पर सामान बेचकर कोई लूटता नही था। आज पूंजीवाद की देन मल्टीप्लेक्स के सामने हम शायद बेबस हो चुके है। जब पूरा परिवार एक स्कूटर पर समां जाता था और जब केवल किसी खास (बेहद खास) मौके पर ही बाहर रेस्टॉरेंट जाकर खाने का कार्यक्रम बनता था।
यूट्यूब नही था और अपनी पसंद के गाने सुनने और पसंदीदा फिल्मे देखने के लिए वीसीआर और टेप रिकॉर्डर का ही आसरा था तब। वीडियो गेम और कॉमिक्स के दिन। मई की तेज़ धुप में जब घर से बाहर निकलना संभव न हो तब चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी, नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव की कॉमिक्स का ही सहारा होता था। पापा हमको पढ़ने के लिए चम्पक, बालहंस, नंदन आदि पत्रिकाएं तो लेकर देते थे पर पता नही क्यों कॉमिक्स पढ़ना अच्छे बच्चों की आदत नही मानी जाती थी। बड़े बुजुर्ग तो कॉमिक्स को ऐसी हेय दृष्टि से देखते थे मानो कोई अश्लील साहित्य हो। इसलिए हमेशा कॉमिक्स पढ़ते हुए कुछ अपराधबोध सा महसूस होता था। उन सभी किताबों और कॉमिक्स का अच्छा खासा कलेक्शन मेरे पास इकठ्ठा हो गया था जो अभी तक संभाल कर रखा हुआ है। पीले पड़ते हुए कागजों में से अभी भी वो बचपन वाली खुशबू आती है। इधर आजकल के बिचारे अभिभावक चाहते हैं कि बच्चा मोबाइल और कंप्यूटर छोड़ कर कुछ तो पढ़े। कोर्स की किताबें न सही कुछ कहानी कविता या कॉमिक्स ही पढ़े बस पढ़ने की आदत तो डाले।
वीडियो गेम से लेकर कॉमिक्स और यहाँ तक कि साइकिल भी घंटो के हिसाब से किराये पर मिलती थी। मुझे याद है जब हम कभी एक दिन के किराये पर वीडियो गेम लाते थे तो हैम सभी भाई अपना खाने पीने और दैनिक क्रियाकलापो का कार्यक्रम इस प्रकार निर्धारित करते थे कि 24 घंटो में एक एक मिनट का पैसा वसूल सके। वीडियो गेम के साथ मज़ेदार बात ये थी कि जब आप नया नया गेम खेलना सीखते हैं तो रिमोट के साथ खुद भी दाएं बाएं होते रहते हैं। शरीर की इन हलचल से ही पता चल जाता था कि कौन नोसिखिया है और कौन पक्का खिलाड़ी है।
केबल टीवी तो खैर गर्मियों की छुट्टियों में ही नसीब होती थी (ऐसी मान्यता थी की इससे पढाई पर बुरा असर पड़ता है)। बाकी साल तो दूरदर्शन देख कर ही निकलता था। अब समझ आया कि दूरदर्शन का वह समय टीवी सीरियलों की गुणवता की दृष्टि से स्वर्णिम युग था। उस समय प्रसारित होने वाले कार्यक्रम जैसे ब्योमकेश बक्शी, फ्लॉप शो, श्रीमान श्रीमती, मालगुडी डेज, जंगल बुक आदि की अपनी एक क्लास थी। यह वो वक्त था जब साक्षरता अभियान पर केंद्रित तरंग जैसे कार्यक्रम से भी मनोरंजन हो जाता था। आज सिर्फ फिल्मो के ही कम से कम 20 चैनल आते है जिन पर रोज़ाना सैकड़ो फिल्में आती है पर जो इंतज़ार तब दूरदर्शन पर सप्ताह में एक बार आने वाली फ़िल्म के लिए होता था वो आज नदारद है। और फिर ' रूकावट के लिए खेद है' को भला कौन भूल सकता है।
जब बिना इलेक्ट्रॉनिक गेजेट्स के भी ज़िन्दगी बहुत आसान हुआ करती थी। जब किसी भी वस्तु को खरीदने का निर्णय उसकी कीमत और अपनी ज़रूरत के आधार पर लिया जाता था न की उसकी ब्रांड वैल्यू पर। उन दिनों भारत में उपभोक्तावादी संस्कृति पूरी तरह से विकसित नहीं हुई थी। हर पीढ़ी अपने बचपन का समय को सबसे यादगार और विशिष्ट मानती है शायद। 1990 के दशक को खास समझना हमारी पीढ़ी की खुशफहमी ही हो शायद। बस यही सोचता हूँ कि ऐसे कितने लोग होंगे जो आज अपनी सारी दौपत कुर्बान कर अपने बचपन का एक दिन फिर से जीना चाहेंगे बशर्ते ऐसा मुमकिन हो। कुछ तो होंगे ही शायद।
जनसत्ता 14,08,2017 में प्रकाशित
http://www.jansatta.com/duniya-mere-aage/jansatta-article-about-golden-past-time/402099/
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Bachapan ki yadein! Nicely written bhaiya...
ReplyDeleteThanks Ruchi
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ReplyDeleteSir, would u like to tell me something abt mea????
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ReplyDeletenice post....keep writing....
ReplyDeleteThanks Harshit bhai
DeleteThanks Harshit bhai
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